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ज्ञान साधना

स्वामी ज्ञानानन्द जी महाराज

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :223
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5981
आईएसबीएन :81-310-351-5

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प्रस्तुत है पुस्तक ज्ञान साधना सोए मन को जगाने वाले दिव्य सूत्र......

Gyan Sadhana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जाग जाग अब जाग मन बावरे
नींद गफलत की त्याग मन बावरे
चादर पसार कब से नींद गहरी सो रहा
सोते-सोते श्वासों की अनमोल पूंजी खो रहा
जाग और जगा ले अपने भाग मन बावरे
जाग जाग........
झूठे मीत-प्रीत रीत, झूठी संसार की
रिश्ता-नाता, बहिन-भ्राता बातें सब बेकार की
कर न किसी से अब राम मनन बावरे
जाग जाग...........
पाप-श्राप और बस विलाप जग के पास है
रखे फिर भी पगला इससे सुख की क्यों आस है
दुनिया है जलती दु:ख की आग मन बावरे
जाग जाग..............
मोक्ष द्वार सुख सार जीवन आधार प्रभु
जिन्दगी की नाव के पतवार खेवनहार प्रभु
कहे ‘किंकर’ प्रभु शरण लाग मन बावरे
जाग जाग..............

।। श्री कृष्ण कृपा ।।
प्राक्कथन


ज्ञान साधना का संबंध किसी शारीरिक हठ क्रिया, आसन या मुद्रा में नहीं, मन के साधने से है। मन को वश में करना ही मूल आधार है ज्ञान साधना का। फिर तो-यत्र तत्र मनो याति तत्र-तत्र समाधय:, जहां-जहां मन जाता है वहीं वह समाधिस्थ हो जाता है। लेकिन जब तक ऐसी स्थिति नहीं बनती तब तक मन को अविद्याजनित भ्रांति चंचल बनाती रहती है।

मन संसार को जिस रूप में देखता है, वास्तव में वह वैसा नहीं। जिस रूप में मनमुख व्यक्ति संसार में सुख ढूंढ रहा है, उस तरह से यह उसे मिलने वाला नहीं है। रेत के सागर में जल की तलाश बुद्धिमत्ता नहीं है। वहां जल के भ्रम की संभावना है, जल मिलने की नहीं। वहां अतृप्ति में वृद्धि होगी, तृप्ति का तो वहां कोई सवाल ही नहीं होता।

ज्ञान की साधना में प्रथम चरण है-सांसारिक सत्ता की इस रूप में स्वीकृति। ज्ञान की साधना में जिस मुक्ति की चर्चा बारबार की जाती है उसे भी साधक को भलीभांति समझना चाहिए। यह मुक्ति कोई ऐसा लोक नहीं है, जहाँ मृत्यु के बाद जीवात्मा गमन करती है। शरीर के रहते वृत्तियों, समस्याओं, दु:खों, तनाव आदि से मुक्त हो जाना ही यहां मुक्ति शब्द का अभिप्राय है।
यहां एक बात और समझनी जरूरी है कि मुक्ति तो आपका सहज स्वभाव है। अज्ञान की ग्रंथि का छेदन विचार-युक्ति से ही संभव है। इसीलिए सद्ग्रंथ संसार बदलने की बात नहीं करते, वे तो विचारों में परिवर्तन लाने की प्रेरणा देते हैं। जहां विचारधारा परिवर्तित हुई, जीवनधारा स्वत: बदल जाती है। जहां विवेक के दर्पण में सत्-असत्, जड़-चेतन में सम्यक् परिणामों की पोल खुलने लगती है- मन इस भ्रम जाल से मुक्त होने लगता है।


विषयों में सुख-दृष्टि से सुख नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि यह दृष्टि कामनाओं के अनेक रक्तबीजों की उत्पत्ति करने वाली है। कामनाएं ही तो अशांति और दुख का कारण हैं। जब यह स्पष्ट रूप से समझ में आ गया कि दुख का कारण विषयों में सुख की वृत्ति है, तो समझ लो, सुख-शांति का असल सूत्र मिल गया।


और कुछ बंधन नहीं, आसक्ति में बंधता है तू
छोड़कर तू देख इसको स्वयं मुक्त स्वभाव है।


लेकिन यह वृत्ति जल्दी टूटती नहीं है। माया की लोरियां, सांसारिक सुख-सुविधाओं के आकर्षण और गहरा करते हैं इस निद्रा को। कई बार तो सत्संग, शास्त्राध्ययन, पूजा-पाठ भी होते रहते हैं, लेकिन यह निद्रा टूटती नहीं। माया-यह मोह निशा ज्ञानियों के अंत: स्थल को कभी-कभी झकझोर देती है। पुराणों में ऐसी अनेक कथाएं हैं।

इस प्रकार अन्य साधनों के साथ मन का जागना भी बहुत जरूरी है। इसके लिए आवश्यक है-मन से सीधा वार्तालाप और वह भी बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी पक्षपात के, मन को चिंतन के कटघरे में खड़ा करके, आवश्यकतानुसार चेतावनी, डांट-फटकार, प्यार या प्रेरणा, जिस किसी प्रकार से-एक ही प्रयास से सोया मन जाग जाए।

चादर पसार कब से नींद गहरी सो रहा
सोते-सोते श्वासों की अनमोल पूंजी खो रहा
जाग और जगा ले अपने भाग रे मन बावरे
जाग ! जाग !! जाग !!! अब तो जाग ए मन बावरे !


मन को झकझोरते-झकझोरते कुछ लिखा गया। इसीलिए यह लिखना भी सही ही होगा कि इस पुस्तक का लेखन अनायास हुआ है। इसमें दिए गए भाव किसी दूसरे के लिए नहीं, एकांत-शांत स्थान पर सांसारिक उहा-पोह में उलझे मन को प्रेरित एवं जागरूक करने के लिए लिख गए थे। इसीलिए इसमें भाव पक्ष और उद्बोधन पक्ष प्रधान रहा है-भाषा के प्रति उपेक्षा हो गई होगी। तात्पर्य तो मन को सही राह पर लगाना है-भाषा जैसी भी क्यों न हो। कहीं-कहीं शब्दों की-यहां तक कि भावों की पुनरावृत्ति भी हुई है। इसे भी मैं स्वीकार करता हूं। साहित्य जगत् से जुड़े विद्वान इसे दोष मानेंगे, लेकिन साधना के जीवन में यह बारंबारता विवशता है। खूंटे को एक जगह गाड़कर उस पर बार-बार चोट मारी जाती है ताकि वह गहरे तक चला जाए। ऐसा होने पर तेज हवा भी उसे हिला नहीं पाती। यही स्थिति हमारे मन की है। एक बात जब उसमें गहरे तक निश्चय से डोलता नहीं है।
 
यह पुस्तक मन से, जो हमारा शत्रु है और परममित्र भी, सीधा वार्तालाप है। विश्वास है कि इसमें दिए गए सूत्र मन को समझने में मदद करेंगे। मन को अगर एक बात भी लग गई, तो जीवन में क्रांति आ जाएगी। ज्ञान साधना की यही तो उपलब्धि है-

जीना है तो मौज से जी, हर दम आतम रस तू पी !

आप सबके जीवन में जीवन में भी ऐसा ही कुछ घटित हो, यही मंगल कामना है ! जय श्री कृष्ण !

कृष्ण किंकर’
स्वामी ज्ञानानंद

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान्
कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवता:।
आत्मैक्यबोधेन विनापि मुक्ति
र्न सिद्धयति ब्रह्म शतान्तरेऽपि।।

विवेक चूड़ामणि ।।6।।

मूलरूप में शास्त्रों का पाठ किया जाए; उनका अध्ययन आदि किया जाए, पंचदेवों की ईश बुद्धि से पूजा-अर्चनादि की जाए, वेदविहित अश्वमेधादि कर्मों का भी निष्पादन किया जाए, फिर भी ब्रह्मा के कोटि वर्ष पर्यन्त तक, अर्थात् यदि ये उपरोक्त साधन किए गए तो भी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति नहीं हो सकती-तब तक, जब तक कि महाकाव्यों द्वारा आत्मा की एकता का ज्ञान नहीं हो जाता।
इसलिए यही मनुष्य द्वारा करने योग्य है। यही सर्वश्रेष्ठ कर्त्तव्य है।
मेरे नाथ !
मैं आपको भूलूं नहीं।
मेरे नाथ !
मैं आपसे दूर ना रहूं,
आप मुझसे दूर ना रहें।
मेरे नाथ !
आप अपनी कृपा सदा
मुझ पर बनाये रखें।


विवेक से काम लें


क्या चाहते हैं ? ऐसा आनंद जो कभी दुख-दर्द में न बदले। ऐसी शांति जो किसी भी दिशा में अशांति और बेकरारी का विकराल रूप न ले। इसके लिए याद रखें-यह सुख-शांति इस ढंग से कदापि नहीं मिल पाएगी, जिस ढंग से आप इसे लेने का असफल एवं निरर्थक प्रयास कर रहे हैं। आशा के विपरीत आशा कर रहे हैं। इतना तो विचार कर लें कि जहां से आप सुख-शांति की आशा लगाए बैठे हैं, वह सब दुख रूप है। अनित्य-नश्वर प्राणी-पदार्थों से नित्य-शाश्वत शांति की इच्छा ! क्या हो गया है आपको ? प्रभु ने आपको अन्य नित्य-शाश्वत शांति की इच्छा ! क्या हो गया है आपको ? प्रभु ने आपको अन्य सभी योनियों में अति विशिष्ट बुद्धि दी है। कुछ तो काम कर लें उससे। क्यों मूर्ख बनते हैं ? जिसके पास जो वस्तु है ही नहीं, वह आपको कैसे और कहां से देगा ? लेकिन आप है कि दुखी होते, ठोकरे खाते और रोते-चिल्लाते हुए वहीं के वहीं हैं-फिर उसी चक्र में पिसे हुए को पुन:-पुन: पीसना। महान आश्चर्य ! इससे बढ़कर क्या हैरानी होगी-
हैरान हूं इंसान कितना भटक रहा है,

दुखों के फंदे पर वह कैसे लटक रहा है।
पग-पग पे खाए ठोकर, पर पकड़े न सीधी राह,
हाय गजब ! सिर अपना वहीं पटक रहा है।

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